Tuesday, January 12, 2016

उसके आने की तिथि का पता चलते ही इंतज़ार की घड़ियाँ आरम्भ हो जातीं। सबसे मिलने को दिल बेचैन हो जाता। यह पहली बार नहीं हो रहा था। इतने वर्ष बीत गए लेकिन हाल वैसा ही है। जब भी पुस्तक मेला और प्रगति मैदान की बात हो तो कैसे घर पर बैठा रहा जा सकता है! किताबों से मिले बिना कैसे रहा जा सकता है! पहले दोनों छोटे बच्चों को साथ ले , पति के साथ चल पड़ती थी। उन दोनों को कभी कोई किताब दिखाती तो कभी कोई। यह अच्छी है, इसे देखो,इसके चित्र कितने अच्छे हैं, बहकाते हुए, फुसलाते हुए उन्हें कुछ घंटे के लिए व्यस्त रखती।
आज बड़ा बेटा तो साथ नहीं गया था लेकिन छोटा बेटा किसी स्टाल में जो एक बार चला जाता तो निकलने का नाम नहीं ले रहा था। मैं इनकी तरफ देखकर मुस्कुरा रही थी, अच्छा लग रहा था कि उसे भी पुस्तकों से दोस्ती हो गयी थी. आज हम जब थक कर उसे बुला रहे थे तो कहता है मम्मी देखो न , अभी कितनी किताबों से तो मिले ही नहीं।
अपने बच्चों को आप सब भी बचपन से ही पुस्तकों से दोस्ती करवाएँ। , इस दुनिया का अपना ही आनंद है।
उषा छाबड़ा


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